I am who I am
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I think I chose to let go of my “identity” when I quit the job to be a stay at home mom. Because usually what we do, forms our identity, especially in our society where the work is tightly associated with certain designations outside, monthly pay checks, growth in any organisation and climbing the ladder towards zenith.
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Saturday, August 19, 2017
Mouthpiece #57
Mouthpiece #56
Paradoxical or what?
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न बाँधो इस अनवरत उन्मुक्त उड़ान को
समय की बेड़ी से इसे सरोकार ही क्यों हो ?
आंतरिक संयम को बाहरी चर्या क्यों,
मन के भावों को शब्दों का बाना क्यों ?
शायद कभी क्षितिज को न छू पाऊँ,
शायद कभी सबसे ऊँचा न उड़ पाऊँ,
शायद क्षमता की सीमा में बंध जाऊं,
पर मन की स्वछंदता को क्यों न पाऊँ |
लौट कर आऊँगी अपने घरोंदे पर फिर भी,
विस्तृत आसमान अधिक अपना सा लगे तो भी |
मन की एक तार काया के बंधनों से है जुडी,
चाहे बाकी सब अपने आशियाँ में हैं सिमटी |
This verse that I wrote a couple of years back, often comes to my mind whenever I introspect or rather open my eyes inwards. I do see myself as a free spirit that soars beyond all borders and boundaries, that cruises in a trans like peaceful state and to whom all restraints, whatsoever, are unknown.
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Mouthpiece #55
बहुत याद करती हूँ
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माँ तुम्हें मैं बहुत याद करती हूँ,
असीमित प्यार के भण्डार को याद करती हूँ |
तुम्हारे हाथों की गर्माहट को याद करती हूँ,
तुम्हारी आँखों के भावों को याद करती हूँ,
तुम्हारी प्यारी मुस्कुराहट को याद करती हूँ,
मुझे ‘बेटी’ कह कर पुकारने को याद करती हूँ,
मेरे अनकहे बोलों को समझने को याद करती हूँ |
मेरी गलतियों को भूल जाने को याद करती हूँ,
मेरी हर बात को मान देने को याद करती हूँ,
मुझे जानने के एहसास को याद करती हूँ,
मेरे साथ होने के संतोष को याद करती हूँ,
तुम सब जानती हो, उस भरोसे को याद करती हूँ |
तुम्हारे साये में बैठने को याद करती हूँ,
तुम्हारे किस्से कहानियों को याद करती हूँ,
तुम्हारे सुझावों सलाहों को याद करती हूँ,
बात-बात में बात कह देने को याद करती हूँ,
तुम्हारी सरल जीवनशैली को याद करती हूँ |
सालों ही बीत गए तुम्हें देखे हुए,
तुम्हारे होने की अनुभूति को याद करती हूँ |
माँ मैं तुम्हें बहुत याद करती हूँ |
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Mouthpiece #54
काश...
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काश…
आज फिर वही छोटी सी बच्ची बन जाऊँ,
जिसे प्यार से बुलाने के अनेकों ही नाम थे,
स्कूल में लिखवाए नाम को कम ही जानते थे |
जिसे झालर वाली फ्रॉक पहनने का शौक था,
फ्रॉक पर बने फ़ूलों से भी ज़्यादा खिला चेहरा था |
जिसे खूब ज़िद करना आता था और मनवाना भी,
जिसकी आँखों में ही बसते थे अनगिनत सपने भी |
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