Saturday, May 7, 2016

श्रद्धा सुमन

कभी अकेला पा घेर लेता है यादों का मेला मुझे
सोचती हूँ कैसा होता आज अगर होता तुम्हारा साथ साथ में
देती हूँ मन को दिलासा यह कह फिर, जितना मिला, मिला तो
एक उदाहरण है उस ऊँचाई का और उस-से जनित एक उद्देश्य भी

ढूँढती हूँ वो सुकून वो अपनापन कुछ छोटी बड़ी चीज़ों में
कुछ साथ बिताए लम्हों में और छोटी छोटी बातों में
शायद हो पाये उस स्पर्श की थोड़ी अनुभूति फिर से
शायद पा सकूँ तुम्हारे आशीर्वादों की लड़ी फ़िर से एक बार

बेसन के वो लड्डू जो तुमसे बेहतर कोई बना न सका
सबसे छुपा कर चार और डाल देती थीं तुम उस डिब्बे में
तुम्हारे प्यार और आशीर्वाद की अभिव्यक्ति ही तो थी
पहुँच जाती थी जो मुझ तक बिना कुछ कहे सुने भी

एक अनुपम सुख का अनुभव करतीं थीं तुम शायद
तभी तो अपने हिस्से की खीर भी हमें खिला देतीं थीं
बादाम की वो कुछ गिरियाँ जो तुम प्यार से देतीं थीं
वो चंद गिरियाँ ही बहुत थीं तृप्त कर देने को हम सब को

अनेकों बेड़ियों से बद्ध रहा तुम्हारा सम्पूर्ण जीवन
पर अपनी सादगी सरलता से कर दिया नतमस्तक उन्हें भी
अपने कर्म और धर्म के प्रति सदा तत्पर और सजग रहीं तुम
रिश्तों को इतना सींचा कि हो गए परिभाषित वे भी फ़िर

नहीं हैं मोहताज मन के भाव और उदगार शब्दों के
कैसे सिमट सकता है कुछ असीम, शब्दों की सीमाओं में
मन से कुछ श्रद्धा सुमन समर्पित कर रही हूँ तुम्हें
शायद पहुँच जाएँ तुम तक, हो हवा के किसी झोंके पे सवार

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