Saturday, August 19, 2017

Mouthpiece #56

Paradoxical or what?
न बाँधो इस अनवरत उन्मुक्त उड़ान को
समय की बेड़ी से इसे सरोकार ही क्यों हो ?
आंतरिक संयम को बाहरी चर्या क्यों,
मन के भावों को शब्दों का बाना क्यों ?

शायद कभी क्षितिज को न छू पाऊँ,
शायद कभी सबसे ऊँचा न उड़ पाऊँ,
शायद क्षमता की सीमा में बंध जाऊं,
पर मन की स्वछंदता को क्यों न पाऊँ |

लौट कर आऊँगी अपने घरोंदे पर फिर भी,
विस्तृत आसमान अधिक अपना सा लगे तो भी |
मन की एक तार काया के बंधनों से है जुडी,
चाहे बाकी सब अपने आशियाँ में हैं सिमटी |

This verse that I wrote a couple of years back, often comes to my mind whenever I introspect or rather open my eyes inwards. I do see myself as a free spirit that soars beyond all borders and boundaries, that cruises in a trans like peaceful state and to whom all restraints, whatsoever, are unknown.

continue here...

On Raksha-Bandhan
Came across this beautifully written poem by Prasoon Joshi, so sharing it here:
बेहेन अक्सर तुमसे बड़ी होती है,
उम्र में चाहे छोटी हो,
पर एक बड़ा सा एहसास लेकर खड़ी होती है,
बेहेन अक्सर तुमसे बड़ी होती है,
उसे मालूम होता है तुम देर रात लौटोगे,
तभी चुपकेसे से दरवाज़ा खुला छोड़ देती है,
उसे पता होता है की तुम झूट बोल रहे हो,
और बस मुस्कुरा कर उसे ढक देती है,
वो तुमसे लड़ती है पर लड़ती नहीं,
वो अक्सर हार कर जीतती रही तुमसे,
जिससे कभी चोट नहीं लगती ऐसी एक छड़ी है,
पर राखी के दिन जब एक पतला सा धागा बांधती है कलाई पे ,
मैं कोशिश करता हूँ बड़ा होने की,
धागों के इसरार पर ही सही ,
कुछ पल के लिए मैं बड़ा होता हूँ,
एक मीठा सा रिश्ता निभाने के लिए खड़ा होता हूँ,
नहीं तो अक्सर बेहेन ही तुमसे बड़ी होती है,
उम्र में चाहे छोटी हो, पर एक बड़ा सा एहसास लेकर खड़ी होती है |

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