Thursday, August 20, 2015

कविता : बस वही

बूँदें तो कम नहीं बिखरी हर तरफ मेरे
पर आस है उस एक बूँद की जो भिगो दे अंतर मन को
चातक भी तो बैठा है स्वाति नक्षत्र की राह में
क्यों नहीं संतुष्ट होता वह किसी भी बूँद से

हरियाली की चादर तो ओढ़ी है कई बार इस धरा ने
पर उस ठूँठ को तो इंतज़ार है बस उसी कोम्पल का
जो करे जीवन को अंकित उस टहनियों के पिंजर में
ताकि हो जाए एहसास उस ठूँठ को भी तरु होने का

रिश्ते नाते तो बहुत बनाते निभाते हैं हम यहां
पर हो जाते हैं कुछ सम्बन्ध सदा के लिए अजर अमर
कि बस एक अपने से सम्बोधन को ढूँढता है फिर यह मन
वही भाव, वही भावना, वही स्नेह कहीं और कहाँ

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