Sunday, September 6, 2015

कविता : फ़िर मिलेंगे

मैं आँखें खुली रखूँ या फ़िर मूँद लूँ
क्या करूँ कि वह चेहरा धुँधला सा न लगे
चेहरे की एक एक लकीर फ़िर स्पष्ट हो जाए
हाथ में हाथ रखने का एहसास वापिस आ जाए
बस इसी उधेड़बुन में निकल गई एक शाम,
जो मन से समर्पित थी सिर्फ तुम्हीं को ही |

आज फ़िर मन में तुमसे मिलने की तड़प उठी है
आज फ़िर उस आत्मीयता को तलाशता है यह मन
यादों के संदूक से एक एक कतरा पकड़ रही हूँ
तरतीब से लगा कर फ़िर संजो रही हूँ
वो जो 'है' था कितना कुछ 'था' है बन गया
फ़िर न आने के लिए सदा के लिए है चला गया

यक़ीन है फ़िर मिलेंगे हम - कभी तो, कहीं तो
बहुत दूर न निकल जाना कि ढूँढ न पाऊँ तुम्हें तब
बाकी हैं कुछ काम जो नियत हैं मुझे अभी
पर मन के एक कोने में वास है तुम्हारा ही
बारिश कि बूंदों सा भिगोता है जो अंतर मन को |

जो सरलता तुमने अपनाई सदा अपने जीवन में
जो सादगी तुमने सार्थक की अपने अंदाज़ में
जो राह तुमने दिखाई एक मुसाफ़िर बन कर
जो जीवन दर्शन तुमने कराया सिर्फ उस पर चल कर
जो भरोसा तुमने दिलाया विश्वास और निष्ठा में
कोशिश है उस सब को अपना सकूँ हर एक पल में |

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